" सम्मानांजलि "

रूपा बाई दवे: परिवार की धुरी और परिधि

    जब हम भारत की धरा पर बिखरे असंख्य पारिवारिक क़िस्सों की ओर नज़र डालते हैं, तो हमें न केवल वीर-गाथाएँ दिखाई देती हैं, बल्कि उन साधारण जीवनों में भी अद्भुत गौरव झलकता है, जो अपनी सरलता और संवेदनशीलता से हमारी सांस्कृतिक विरासत को निरंतर समृद्ध करते रहे हैं। ऐसी ही एक विलक्षण कहानी है मेरी दादी, स्वर्गीय श्रीमती रूपा बाई दवे की, जिनकी अंतिम विदाई 17 जनवरी 2025 को हुई।

    मैं आज भी सिहर जाता हूँ जब याद करता हूँ वो पल—सर्दियों की कंपकंपाती उस शाम, श्मशान में जलती चिता के सामने हम तीनों—मेरे पिता, मेरी बहन और मैं—बैठे थे, उनकी निष्प्राण देह को अग्नि की लौ के हवाले करते हुए। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उनके शरीर का हर अंग अंतिम क्षणों तक हमारी ओर अपनी ऊष्मा उड़ेल रहा हो—एक ऐसी दिव्य ऊष्मा जिसमें उनका निश्छल प्रेम, समर्पण और आशीष समाया हुआ था। जीवनभर की तरह, उस अंतिम पल में भी वह अपनी ममता से, तेज़ ठंड से हमारी देखभाल कर रही थी।

प्रारंभिक जीवन और विवाह

    दादी रूपा बाई दवे का जन्म चित्तौड़गढ़ ज़िले के भादसोड़ा गाँव में, सांवलिया सेठ मंदिर के निकट हुआ। उनके पिता पंडित गोवर्धन लाल जोशी और माता यशोदा बाई जोशी उन दिनों की परिस्थितियों के चलते एक ओर विभिन्न पर्वों और तिथियों पर यजमानों से प्राप्त दान-आधारित सहयोग पर निर्भर थे, तो दूसरी ओर खेती-बाड़ी भी करते थे। अपनी कठोर मेहनत से वे परिवार का भरण-पोषण करते थे और इसी श्रमशील वातावरण में दादी का बचपन बीता। साथ ही, उस समय लड़कियों की शिक्षा का प्रचलन बहुत सीमित होने के कारण दादी को विद्यालय जाने का अवसर नहीं मिल पाया। लेकिन कौन जानता था कि स्कूल की पढ़ाई से वंचित यह बालिका, जीवन की पाठशाला में इतने ऊँचे आदर्श स्थापित करेगी।

    दादी को अपने घर में भाई-बहनों का भी प्रोत्साहन मिला। उनकी बड़ी बहन भोली बाई (जो दादी से 10 वर्ष बड़ी थीं) और जीजाजी भगवती लाल जी (निमड़ी गाँव से) ने दादी पर जीवनभर स्नेह और आशीर्वाद बरसाया। दादी के बड़े भाई कन्हैया लाल जी जोशी और उनकी पत्नी गोपी बाई ने भी दादी को सदैव प्रेम और सहयोग दिया।

    सिर्फ़ बारह वर्ष की अल्पायु में दादी रूपा बाई दवे का विवाह, ईडरा गाँव के निवासी पंडित पुष्कर लाल जी दवे से हुआ। दादाजी का अपना बचपन भी कठिनाइयों से भरा रहा—उनके पिता का देहांत तभी हो गया था जब वे बहुत छोटे थे, और उनकी माता एक ऐसे भावलोक में विचरती थीं जहाँ वे भजन गुनगुनाने या सहज ही नए-नए काव्यात्मक भजन रचने में मग्न रहती थीं। परिवार की ज़िम्मेदारी महज़ 10-12 वर्ष की आयु में ही दादाजी के कंधों पर आ गई। उन्होंने बिजली के खंभे गाड़ने से लेकर दूर-दराज़ क्षेत्रों में गड्ढे खोदने जैसी श्रमसाध्य नौकरियाँ कीं। अंततः एक सज्जन की कृपा और ईश्वर की अनुकंपा से उन्हें उदयपुर के एक सरकारी कॉलेज में चपरासी की नौकरी मिली।

    दादी के पारिवारिक जीवन में उनके देवर छोगालाल जी दवे का भी अहम स्थान रहा। वे अंत तक दादी के साथ खड़े रहे, जब तक कि उनका देहांत तीन वर्ष पूर्व नहीं हो गया। इस तरह दादी को जीवनपर्यंत न सिर्फ़ अपने मायके और ससुराल, बल्कि पूरे परिवार का अपार स्नेह और सहारा मिलता रहा।

परिवार का विस्तार

    दादी और दादाजी के आशीर्वाद से मेरे पिता, योगेश जी दवे का जन्म हुआ। कठिनाइयों के बीच भी दोनों ने अथक परिश्रम की मिसाल कायम की। समय के साथ, पिता जी का विवाह कुसुम लता जी दवे से हुआ—वे भी उसी गाँव से थीं, और उनके पिता मांगी लाल जी अचारत, दादाजी के परम मित्र थे। इस विवाह से परिवार में नई खुशियाँ आईं।

    परंतु जीवन की नश्वरता ने अचानक दादाजी को 52 वर्ष की आयु में हमसे छीन लिया। उन दिनों मेरी माँ मुझे गर्भ में लिए हुए थीं, और मैं उनका पहला बच्चा था। दादाजी की मृत्यु के ठीक छह महीने बाद मेरा जन्म हुआ, और दो वर्ष पश्चात मेरी बहन कुमुद दुनिया में आई। हम दोनों मानो दादी के अनमोल रत्न बन गए। विशेषतः मेरा तो उनके साथ “रूममेट” जैसा ही रिश्ता था—बचपन में मैं उनके साथ ही सोता, उनकी कहानियाँ सुनता और उनके साथ निजी बातें साझा करता। वे मुझे हमेशा जीवन में महान कार्य करने और मेहनत से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती थीं। यह बचपन सचमुच स्वप्निल था, जहाँ दादी का वात्सल्य एक सुरक्षा-कवच की तरह मुझे सदैव घेरे रहता था।

    मेरे पिता को कुछ समय बाद एक अच्छी नौकरी मिल गई, जिससे आर्थिक स्थिति सँभली। हम सभी उदयपुर आ बसे और यहीं मैंने तथा मेरी बहन ने अपनी शिक्षा पूरी की। दादी हमारे साथ रहीं—हमारी हर ज़रूरत का ख़याल रखते हुए, अपने ममतामय आंचल से हमें सदा ढाँकती रहीं। उनका प्रेम सिर्फ़ परिवार तक सीमित न था; वे आस-पड़ोस और बड़े-बुज़ुर्ग, सभी के प्रति आदर भाव रखती थीं।

गौ-भक्ति और पशु-प्रेम

    दादी का पशुओं के प्रति अनुराग अद्वितीय था। जीवन के विभिन्न पड़ावों में उन्होंने कई गायें—जैसे जमना, उसकी बछिया दूत, और दूत की बछिया नंदू—तथा भैंसें—ओमकारी, सन्नू—पालीं। इनके लिए दादी के मन में अतुल्य प्रेम था—ये पशु मात्र जीव नहीं, बल्कि परिवार के सदस्य थे। जब परिवार को उदयपुर स्थानांतरित होना पड़ा, तो दादी ने इन गायों को छोड़ने से साफ़ इनकार कर दिया। भीड़भाड़ वाले शहर में गायों को पालना बहुत कठिन था, पर दादी की खुशी के लिए मेरे पिता ने उन्हें साथ लाना ही उचित समझा। इस तरह, उदयपुर की तंग गलियों में भी हमारी गायों का अस्तित्व बना रहा—दादी के हौसले का यही उदाहरण था।

    इसी दौरान एक घटना घटी, जो आज भी मेरे मन में गहराई से अंकित है। जमना और दूत रोज़ सुबह दूध देने के बाद स्वतः घूमने निकल जातीं और शाम को ख़ुद लौट आतीं। लेकिन एक दिन आसमान से मूसलाधार बारिश होने लगी और दूत घर नहीं लौटी। जैसे-जैसे समय बीतता गया, हमारी बेचैनी बढ़ती गई। दादी ने अपनी चप्पलें उतारीं और घर के सामने बने छोटे चबूतरे पर चुपचाप बैठ गईं—बस नज़रें दरवाज़े पर गड़ी थीं, मानो दूत किसी भी पल आ जाएगी। तेज़ आँधी-पानी के बीच मेरे पिता और मैंने हर दिशा में उसे खोजा, पर असफल रहे। रात गहरा रही थी, और दादी का मन व्यग्र होता जा रहा था। हम सब उनकी आँखों में टिमटिमाते आँसू देख सकते थे, पर किसी के मुँह से शब्द न निकलते थे।रात भर जागते हुए हम सब मन ही मन प्रार्थना करते रहे। भोर होते ही, हल्की सी उजास फैलने लगी कि अचानक गली के मोड़ पर दूत तेज़ क़दमों से भागती हुई नज़र आई। दादी ने उसे देखते ही लाठी उठाई और हल्के-हल्के प्रहार करते हुए डाँटने लगीं—जैसे सारी रात का भय और चिंता उसी लाठी के माध्यम से निकाल रही हों। लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने लाठी फेंक दी, दूत को गले से लगा लिया और फूट-फूटकर रो पड़ीं।

    बाद में हमें पता चला कि मूसलाधार बारिश ने पास के एक छोटे-से नाले को उफनती नदी में बदल दिया था, जिसने दूत को दूसरी ओर फँसा दिया था। उस क्षण का भाव—रातभर की बेचैनी के बाद सुबह के उजाले में दूत को गले लगाकर रो पड़ना—आज भी मेरे मन में गहराई से बसा हुआ है। वह प्रेम का ऐसा सजीव उदाहरण था, जिसे याद करके मेरा हृदय आज भी द्रवित हो उठता है।

जीवन के उतार-चढ़ाव और अंतिम विदाई

    समय बीतता गया और मैं हैदराबाद में नौकरी करने लगा। इसी दौरान दादी को एक बार ब्रेन हेमरेज हुआ, जिससे उन्हें पक्षाघात (पैरालिसिस) हो गया। लेकिन उनकी अदम्य इच्छाशक्ति और हमारे परिवार के अटूट सहयोग ने उन्हें दोबारा चलने-फिरने में मदद की। यद्यपि उनका शरीर पहले जैसी स्फूर्ति नहीं पा सका, फिर भी दूसरों की निःस्वार्थ सेवा का उनका जज़्बा बरक़रार रहा।

    जनवरी 2025 में, मैं एक मित्र के विवाह में शामिल होने उदयपुर पहुँचा। हमारी योजना थी कि 20 जनवरी को दादी मेरे साथ हैदराबाद चलेंगी। परन्तु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। 17 जनवरी को उन्हें एक हल्का हृदयाघात हुआ। अस्पताल में भी वे सबको एक-एक करके बुलाती रहीं—मानो अंतिम क्षणों में परिवार को फिर से एक सूत्र में पिरोने के बहाने ढूँढ़ रही हों। उसी दौरान, मुझसे बात करते-करते उन्होंने यह संसार छोड़ दिया। ऐसा लगा जैसे उन्होंने अपना समय स्वयं चुना हो—पूरे परिवार को अलग-अलग बहानों से इकट्ठा करके, शांतचित्त विदा लेने के लिए।

    20 जनवरी, जिस दिन हमें हैदराबाद के लिए रवाना होना था, उसी दिन मैं दादी के अस्थि-अवशेष लेकर हरिद्वार निकला और पवित्र गंगा के जल में उनका विसर्जन किया। हमने दक्षिण की ओर जाने की तैयारी तो की थी, किन्तु किस्मत ने हमें उत्तर की ओर धकेल दिया, मानो धरती और स्वर्ग का कोई अनजाना बंधन हमें उस पावन नदी के तट पर ले आया हो। गंगा के कलकल प्रवाह में दादी की अस्थियों को विसर्जित करते हुए, मैंने उस अटूट प्रेम और आशीष के अंतहीन प्रवाह को महसूस किया, जो हमारे साथ सदा रहेगा।

परिवार की धुरी और परिधि

    दादी हमारे परिवार का वह केंद्र बिंदु थीं, जिन पर सभी निर्णयों का संतुलन टिका होता था। साथ ही, वे उस परिधि समान भी थीं जो परिवार के आदर्शों और मूल्यों की सीमाएँ निर्धारित करती थीं—निष्पक्षता, अनुशासन और मर्यादा का घेरा खींचती हुईं। परंतु इस घेराबंदी में कभी हमारी उन्नति पर कोई अंकुश नहीं था; हम सबको आकाश जितना ऊँचा उड़ने की पूरी आज़ादी मिली। यह उनका ही आशीर्वाद था कि हमारा परिवार दुनिया की चुनौतियों का सामना करते हुए एक स्वस्थ और सम्मानित जीवन जी पाया।

    आज, जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तो उनके स्नेह और संस्कारों का वह स्रोत सूना-सा लगता है। फिर भी, मन को यह ढाँढस है कि वे संतोष और प्रसन्नता के साथ विदा हुईं। उनकी मुस्कान, उनका दूसरों की सेवा में तत्पर रहना और उनका सहृदय स्वभाव—इन सबकी स्मृति हमें जीवन-भर मार्ग दिखाती रहेगी।

उनकी सरलता भरे असाधारण जीवन के आगे हम सभी नतमस्तक हैं।
उनकी आत्मा को शांति मिले, और उनका आशीर्वाद हमारे परिवार पर सदा बना रहे।

“रूपा बाई स्कॉलरशिप अवार्ड” का शुभारंभ

    दादी की स्मृति को चिरस्थायी रूप से अंकित करने के लिए हमने ‘रूपा बाई स्कॉलरशिप अवार्ड’ की स्थापना का संकल्प लिया है—यह पुरस्कार उनकी शिक्षा-पिपासा और मानव-सेवा के आदर्शों का दीप बनकर आने वाली पीढ़ियों के पथ को आलोकित करेगा।

    दवे फ़ाउंडेशन द्वारा पहले से ही आदर्श राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, ईडरा के कक्षा 10वीं के छात्रों के लिए ‘पुष्कर स्कॉलरशिप अवार्ड’ संचालित किया जा रहा है। अब, उसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए, कक्षा 12वीं के छात्रों के लिए भी एक नई छात्रवृत्ति—‘रूपा बाई स्कॉलरशिप अवार्ड’—सत्र 2024-25 से आरंभ की जा रही है।

    दादी का शिक्षा-पिपासा को प्रोत्साहित करने का स्वप्न तथा उनकी उदार भावना ही इस छात्रवृत्ति का प्रेरणा-स्रोत हैं। हमारा प्रयत्न रहेगा कि उनकी स्मृतियाँ आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करती रहें, और उनकी शिक्षा के प्रति समर्पित भावना का प्रकाश सबको दिशा दिखाए।

Love you dadi

Ritvik & Kumud